- भूमि
- तापमान
- उचित समय
- भूमि की तेयारी
- उच्चतम वैरायटी
- बीज उपचार
- बिजाई का तरीका
- सिंचाई
- खरपतवार नियंत्रण
- उर्वरक
- रोग व उनकी रोकथाम
- अब फसल पकने का इंतजार करें
मटर की खेती विभिन्न प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है फिर भी गंगा के मैदानी भागों की गहरी दोमट मिट्टी इसके लिए सबसे अच्छी रहती है । इसकी खेती के लिए मटियार दोमट और दोमट भूमि सबसे उपयुक्त होती है जिसका पीएच मान 6-7.5 होना चाहिए ।
इसके अच्छे उत्पादन के लिए 10 से 25 डिग्री सेल्सियस तक तापमान होना चाहिए ।
मटर की बुआई मध्य अक्तूबर से नवम्बर तक की जाती है जो खरीफ की फसल की कटाई पर निर्भर करती है। फिर भी बुआई का उपयुक्त समय अक्तूबर के आखिरी सफ्ताह से नवम्बर का प्रथम सप्ताह है ।
खरीफ ऋतु की फसल की कटाई के बाद सीड बैड तैयार करने के लिए हल से 1-2 जोताई करें हल से जोतने के बाद 2 या 3 बार तवियों से जोताई करें । जल जमाव से रोकने के लिए खेत को अच्छी तरह समतल कर लेना चाहिए । बिजाई से पहले खेत की एक बार सिंचाई करें यह फसल के अच्छे अंकुरन में सहायक होती है । पहली जुताई के बाद खेत में 12 से 15 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देना होता है । मटर में सामान्यतः 20 किग्रा नाइट्रोजन एवं 60 किग्रा. फास्फोरस बुआई के समय देना पर्याप्त होता है। इसके लिए 100-125 किग्रा. डाईअमोनियम फास्फेट (डी, ए,पी) प्रति हेक्टेयर दिया जा सकता है। पोटेशियम की कमी वाले क्षेत्रों में २० कि.ग्रा. पोटाश (म्यूरेट ऑफ़ पोटाश के माध्यम से) दिया जा सकता है। जिन क्षेत्रों में गंधक (sulfur) की कमी हो वहाँ बुआई के समय गंधक (sulfur) भी देना चाहिए यह उचित होगा कि उर्वरक देने से पहले मिट्टी की जांच करा लें और कमी होने पर उपयुक्त पोषक तत्वों को खेत में दें ।
आर्किल, बी.एल, जवाहर मटर 3, जवाहर मटर – 4, जवाहर पी-4, काशी नंदिनी, काशी अगेती, पंत सब्जी मटर, पंत सब्जी मटर 5, के.पी.एम.आर. 400 ।
बीजो को खेत में लगाने से पहले उन्हें राइजोबियम की उचित मात्रा से उपचारित कर लिया जाता है इसके अतिरिक्त थीरम या कार्बेन्डाजिम से मिट्टी को भी उपचारित कर ले ।
मटर के बीजो की रोपाई के लिए ड्रिल विधि का इस्तेमाल सबसे उपयुक्त माना जाता है । इसके लिए खेत में पंक्तियों को तैयार कर लिया जाता है, यह पंक्तिया एक फ़ीट की दूरी रखते हुए तैयार की जाती है इन पंक्तियों में बीजो को 5 से 7 CM की दूरी पर लगाया जाता है ।
मटर के बीजो को नम भूमि की जरूरत होती है इसके लिए बीज रोपाई के तुरंत बाद उसके पौधे की रोपाई कर दी जाती है । इसके बीज नम भूमि में अच्छे से अंकुरित होते है । मटर के पौधों की पहली सिंचाई के बाद दूसरी सिंचाई को 15 से 20 दिन के अंतराल में करना होता है तथा उसके बाद की सिंचाई 20 दिन के पश्चात् की जाती है ।
मटर के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक विधि का इस्तेमाल किया जाता है इसके लिए बीज रोपाई के पश्चात् लिन्यूरान की उचित मात्रा का छिड़काव खेत में करना होता है इसके अलावा यदि आप प्राकृतिक विधि का इस्तेमाल करना चाहते है तो उसके लिए आपको बीज रोपाई के तक़रीबन 25 दिन पश्चात् पौधों की गुड़ाई कर खरपतवार निकालनी होती है । इसके पौधों को केवल दो से तीन गुड़ाई की ही जरूरत होती है तथा प्रत्येक गुड़ाई 15 दिन के अंतराल में करनी होती है ।
मटर की अधिक उत्पादन के लिए खाद और उर्वरकों का उपयोग से पहले संभव हो तो अपने खेत की मिट्टी का परीक्षण करवा लेना चाहिए इसके बाद ही खाद और उर्वरक का इस्तेमाल करें । इसके अलावा आप सिंचाई के साथ 25 KG यूरिया पहली और तीसरी सिंचाई के साथ कर सकते हो ।
रतुआ :- इस क़िस्म का रोग मटर के पौधों की पत्तियों पर आक्रमण करता है । इस रोग के लग जाने से पत्तियों पर पीले रंग के फफोले दिखाई देने लगते है तथा रोग से अधिक प्रभावित होने पर पौधे की सम्पूर्ण पत्ती पीली होकर गिर जाती है तथा कुछ समय पश्चात् ही पौधा सूखकर नष्ट हो जाता है इस रोग से बचाव के लिए मटर के पौधों पर नीम के तेल या काढ़े का छिड़काव करना होता है ।
चूर्णी फफूंदी :- इस क़िस्म का रोग पौधों पर नीचे से ऊपर की और आक्रमण करता है तथा रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियों पर सफ़ेद रंग के धब्बे नज़र आने लगते है । रोग का प्रभाव अधिक बढ़ जाने पर पौधा पूरी तरह से विकास करना बंद कर देता है । कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा का छिड़काव पौधों पर कर इस रोग की रोकथाम की जा सकती है ।
तुलासिता :- तुलासिता का रोग पौधों की पत्तियों की दोनों सतह पर आक्रमण करता है जिसके बाद पत्ती पर पीले रंग के धब्बे बनने लगते है तथा पत्ती की निचली सतह पर रूई के रूप में सफ़ेद फफूंद लगने लगती है इस रोग से प्रभावित पौधा विकास करना बंद कर देता है । मैन्कोजेब या जिनेब की उचित मात्रा का छिड़काव कर इस रोग की रोकथाम की जा सकती है ।
चेपा :- चेपा रोग को माहू नाम से भी जानते है जिसमे छोटे आकार के कीट होते है जो हरे और पीले रंग के होते है यह सभी कीट समूह के रूप में पौधों पर आक्रमण करते है जिसके बाद यह रोग पौधों का रस चूसकर उसके विकास को पूरी तरह से रोक देता है । इस रोग से बचाव के लिए मोनोक्रोटोफास की उचित मात्रा का छिड़काव मटर के पौधों पर करना होता है ।
फली छेदक रोग :- इस क़िस्म का रोग अतिरिक्त प्रभावशाली माना जाता है जो पैदावार को अधिक हानि पहुँचाता है । इस कीट का लार्वा फली में घुसकर उसे अंदर से खाकर नष्ट कर देता है जिससे फली के सभी दाने ख़राब हो जाते है । इस रोग से बचाव के लिए क्लोरपाइरीफास का छिड़काव पौधों पर करना होता है ।
मटर की उन्नत किस्मों के आधार पर मटर की फलियां अलग अलग समय पर तुड़ाई हेतु तैयार होती हैं । फलियाँ तैयार होने पर तुड़ाई 10 से 20 दिन के अंतर पर 3 से 4 बार तोड़ें । मटर के पौधे बीज रोपाई के 130 से 140 दिन पश्चात् कटाई के लिए तैयार हो जाते है । मार्च माह में पकी हुई मटर की कटाई समय से करें जिससे फलियाँ फटकर गिरने न पायें । पौधों की कटाई के बाद उन्हें सूखा लिया जाता है जिसके बाद सूखे दानो को फलियों से निकाल लेते है । दानो को निकालने के लिए मशीन का भी इस्तेमाल कर सकते है ।