- पपीता
- जलवायु और मृदा
- पपीते की महत्वपूर्ण किस्में
- पपीते की पौध तैयार करने की तकनीक तथा बीज की मात्रा
- खेत की तैयारी तथा रोपण तकनीक
- पोषक तत्व प्रबंधन तकनीक
- सिंचाई एवं खरपतवार प्रबंधन तकनीक
- अंत: वर्तीय फसलें
- फलों की तुड़ाई तथा श्रेणीकरण एवं पैकिंग
- पपीते में पौध संरक्षण (एकीकृत कीट प्रबंधन तकनीक)
- पपीते में एकीकृत रोग प्रबंधन तकनीक
- पपीते के फल एवं उपज
- पपीते की उत्पादकता बढ़ाने के उपाय
- पपीते के फलों से पपेन निकालने की विधि
- पपेन का उत्पादन
- पपीते के बगीचे में फर्टीगेशन तकनीक द्वारा पोषक तत्व प्रबंधन
पपीता, विश्व के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगाया जाने वाला महत्वपूर्ण फल है। केला के पश्चात् प्रति ईकाई अधिकतम उत्पादन देने वाली एवं औषधीय गुणों से भरपूर फलदार पौधा है। पपीता को भारत में लाने का श्रेय डच यात्री लिन्सकाटेन को जाता है जिनके द्वारा पपीता के पौधे वेस्टइंडीज से सन् 1575 में मलेशिया लाया फिर वहां से भारत आया। बड़वानी में भी लगभग 958 हे. क्षेत्रफल में पपीतें की व्यावसायिक खेती की जा रही है। बड़वानी जिले की लाल तथा पीली किस्मे प्रसिद्ध हैं पपीते के फलो से पपेन तैयार किया जाता है जिसका प्रसंस्कृत उत्पाद हेतु उपयोग किया जाता है। पपीता प्यूरी/भरता का भी बडा निर्यातक है।
पपीते के पौधे, एक उष्णकटिबंधीय फसल, 70°F-90°F (21-32°C) के बीच गर्म से गर्म तापमान में उगते और फलते हैं। वे ठंढ या ठंडे तापमान को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं, और 10 डिग्री सेल्सियस से नीचे का तापमान पकने में देरी कर सकता है। ठंडे क्षेत्रों में, आप देर से पतझड़ में रोपाई शुरू कर सकते हैं और उन्हें सर्दियों में ग्रीनहाउस में रख सकते हैं। वसंत ऋतु में पाले का ख़तरा टल जाने के बाद, आप बाहर पौधे लगा सकते हैं।
राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड
मिट्टी एवं जलवायु - पपीता
पपीता 45 सेमी या मध्यम गहराई वाली अच्छी जल निकासी वाली समृद्ध रेतीली दोमट मिट्टी में अच्छी तरह से उगता है...
पपीते को 5.5 से 6.5 पीएच वाली अच्छी जल निकासी वाली, समृद्ध, रेतीली दोमट या मध्यम काली मिट्टी की भी आवश्यकता होती है, जिसमें जलभराव न हो। उन्हें पानी की भी बहुत आवश्यकता होती है, इसलिए आपको उन्हें हर तीन से चार दिन में अच्छी तरह से पानी देना चाहिए, लेकिन पानी को मिट्टी के ऊपर जमा न होने दें। पपीते को तेज़, गर्म या शुष्क हवाओं वाले क्षेत्रों में या उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों में नहीं उगाया जाना चाहिए, जिससे कॉलर-रॉट रोग हो सकता है।
पपीते की किस्मों का चुनाव खेती के उद्देश्य के अनुसार किया जाना चाहिए जैसे कि औद्योगिक रूप से महत्व की किस्में जिनके कच्चे फलों से पपेन निकाला जाता है, पपेन किस्में कहलाती हैं इस वर्ग में महत्वपूर्ण किस्में सी. ओ- 2 ए सी. ओ- 5 एवं सी. ओ- 7 है।
इसके साथ दूसरा महत्वपूर्ण वर्ग है टेबिल वैरायटी या जिनको पकी अवस्था में काटकर खाया जाता है। इस वर्ग को पुनः दो भागों में बांटा गया है पारम्परिक पपीते की किस्में :- पारंपरिक पपीते की किस्मों के अंतर्गत बड़वानी लाल, पीला, वाशिंगटन, मधुबिन्दु, हनीड्यू, कुर्ग हनीड्यू , को 1 एवं 3 किस्में आती हैं। नई संकर किस्में उन्नत गाइनोडायोसियस /उभयलिंगी किस्में :- इसके अंतर्गत निम्न महत्वपूर्ण किस्में आती हैः- पूसा नन्हा, पूसा डेलिशियस, सी. ओ- 7 पूसा मैजेस्टी, सूर्या आदि।
पपीते के 1 हेक्टेयर के लिए आवश्यक पौधों की संख्या तैयार करने के लिए परंपरागत किस्मों का 500 ग्राम बीज एवं उन्नत किस्मों का 300 ग्राम बीज की मात्रा की आवश्यकता होती है। पपीते की पौध क्यारियों एवं पालीथीन की थैलियों में तैयार की जा सकती है। क्यारियों में पौध तैयार करने हेतु क्यारी की लंबाई 3 मीटर, चौड़ाई 1 मीटर एवं ऊंचाई 20 सेमी रखें। प्लास्टिक की थैलियों में पौध तैयार करने के लिए 200 गज मोटी 20 गुना 15 सेमी आकार की थैलियाँ (जिनमें चारों तरफ एवं नीचे छेद किए गए हो ) में वर्मीकंपोस्ट, रेत, गोबर खाद तथा मिट्टी के 1:1:1:1 अनुपात का मिश्रण भरकर प्रत्येक थैली में 1 या 2 बीज बोंए। |
पौध रोपण पूर्व खेत की तैयारी मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर 2-3 बार कल्टिवेटर या हैरो से जुताई करें तथा समतल कर लें पूर्ण रूप से तैयार खेत में 45*45*45 सेमी आकार के गढडे 2 गुना 2 मीटर (पंक्ति – पंक्ति एवं पौध से पौध )की दूरी पर तैयार करें।
200 ग्राम नत्रजन, 250 ग्राम फास्फोरस और 250 ग्राम पोटाश प्रति पौधा प्रतिवर्ष 3-4 बराबर भागों में बांटकर दें।
पपीता के पौधो की अच्छी वृद्धि तथा अच्छी गुणवत्तायुक्त फलोत्पादन हेतु मिटटी में सही नमी स्तर बनाए रखना बहुत जरूरी होता है नमी की अत्याधिक कमी का पौधों की वृद्धि फलों की उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। सामान्यतः शरद ऋतु में 10-15 दिन के अंतर से तथा ग्रीष्म ऋतु में 5-7 दिनों के अंतराल पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करें सिंचाई की आधुनिक विधि ड्रिप तकनीकी अपनाऐ।
पपीते बाग में अंतःवर्तीय फसलों के रूप में दलहनी फसलों जैसे मटर, मैथी, चना, फ्रेंचबीन व सोयाबीन आदि ली जा सकती। मिर्च, टमाटर, बैंगन, भिण्डी आदि फसलों को पपीते पौधों के बीच अंतःवर्तीय फसलों के रूप में न उगायें।
पपीत के पूर्ण रूप से परिपक्व फलों को जबकि फल के शीर्ष भाग में पीलापन शुरू हो जाए तब डंठल सहित तुड़ाई करें। तुड़ाई के पश्चात् स्वस्थ, एक से आकार के फलों को अलग कर लें तथा सड़े गले फलों को अलग हटा दें।
एफिड– कीट का वैज्ञानिक नाम एफिस गोसीपाई माइजस परसिकी है। इस कीट के शिशु तथा प्रौढ़ दोनों पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं तथा पौधे में मौजेक रोग के वाहक का कार्य करते है।
प्रबंधन तकनीक – मिथाइल डेमेटान या डायमिथोएट की 2 मिली मात्रा/ ली. पानी में मिलाकर पौध रोपण पश्चात् आवश्यकतानुसार 15 दिन के अंतर से पत्तियों पर छिड़काव करें।
लाल मकड़ी– इसे वैज्ञानिक भाषा में ट्रेट्रानायचस सिनोवेरिनस कहते है। यह पपीते का प्रमुख कीट है जिसके आक्रमण से फल खुरदुरे और काले रंग के हो जाते है तथा पत्तियाँ पर आक्रमण की स्थिति में फफूंद पीली पड़ जाती है।
प्रबंधन – पौधे पर आक्रमण दिखते ही प्रभावित पत्तियों को तोड़कर दूर गढढे में दबाऐं। वेटेबल सल्फर 2.5 ग्राम/ ली. या डाइकोफॉल 18.5 ईसी की 2.5 मिली या ओमाइट 1.5 मिली मात्रा/ ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
तना गलन (तने तथा जड़ के गलने की बीमारी ) – इस रोग का कारण पीथियम एफिनडरमेटम फाइटोफ्थरा पामीबोरा नामक फफूंद है जिसके कारण पौधे भूमि के पास तने का ऊपरी छिलका पीला होकर गलने लगता है धीर-धीरे गलन जड़ तक पहुँच जाती है इस कारण फफूंद सूख जाती है और पौधा मर जाता है। प्रबंधन के लिए जलनिकास में सुधार करें तथा रोग ग्रसित पौधों को खेत से निकालकर हटा दें उसके पश्चात् पौधों पर 1 प्रतिशत बोर्डो मिश्रण या काॅपर आक्सीक्लोराइड या ब्लाइटाकस दवा की 2 ग्रा / ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करें तथा ड्रेंचिंग करें।
डम्पिंग ऑफ (आर्द गलन ) – यह रोग पपीते में नर्सरी अवस्था में आता है जिसका कारण पीथियम एफिनडरमेटस, पी. अल्टीमस फाइटोफ्थोरा पामीबोरा तथा राइजोक्टोनिया स्पी. के कारण होता है।
लक्षण- पौधे नीचे (जमीन की सतह के पास से )से गलकर मरने लगते है।
प्रबंधन – रोग से बचने के लिए पपीते के बीजों का उपचार बुवाई पूर्व सेरेसान या एग्रोसान जी एन से उपचारित करें तथा नर्सरी को फार्मेल्डिहाइड के 2.5 प्रतिशत घोल से ड्रेंचिंग करें या उपचारित करें।
रिंग स्पॉट वायरस – इस रोग का कारण विषाणु है जो कि माहू द्वारा फैलता है । इस रोग के गंभीर आक्रमण की स्थिति में 50-60 प्रतिशत तक हानि हो जाती है जिस कारण पत्तियों पर क्लोरोसिस दिखाई देता है पत्तियाँ कटी – कटी दिखाई देती है तथा पौधे की वृद्धि रूक जाती है।
लीफकर्ल – यह भी विषाणु जनित रोग है जो कि सफेद मक्खी के द्वारा फैलता है जिस कारण पत्तियाँ मुड़ जाती है इस रोग से 70-80 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है।
नियंत्रण- स्वस्थ पौधो का रोपण करें। रोगी पौधों को उखाड़कर खेत से दूर गढढे में दबाकर नष्ट करें। सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु अनुसंशित कीटनाशक का प्रयोग करें।
अच्छी तरह वैज्ञानिक प्रबंधन करने पर प्रति पौधा 40-50 किलो उपज प्राप्त हो जाती है। पपीते की प्रति हेक्टेयर राष्ट्रीय स्तर पर उत्पादकता 317 क्विं/हे. है।
संकर पपीते की खेती पर होने वाली आय व्यय का ब्यौरा (अनुमानित प्रति हेक्टेयर )
कुल लागत | 165400 |
उत्पादन ( क्वि. / हे.) | 900 |
विक्रय | 405000 |
लाभ लागत अनुपात | 2.44 |
शुद्ध लाभ | 194600 |
1. पपीते की व्यावसायिक खेती में उभयलिंगी किस्मों जैसे सूर्या ( भारतीय बागवानी अनु. सं. बैंगलोर ) सनराइज सोलो, रेडी लेडी -786 के साथ किचिन गार्डन के लिए पूसा नन्हा, कुर्ग हनीड्यू, पूसा ड्वार्फ, पंत पपीता 1, 2 एवं 3 के चयन को प्राथमिकता दें।
2. रसचूसक कीटों के प्रभाव वाले क्षेत्रो में पपीते को अक्टूबर में रोपण करें तथा पौधों की नर्सरी कीट अवरोधी नेट हाऊस के भीतर तैयार करें।
3. खाद व उर्वरक की संतुलित मात्रा 250 ग्राम नत्रजन, 250 ग्राम स्फुर तथा 250 -500 ग्राम पोटाश प्रति पौधा/वर्ष प्रयोग करें।
4. सिंचाई के लिए ड्रिप सिंचाई पद्धिति अपनाऐं।
5. फसल में रसचूसक कीटों के नियंत्रण हेतु फेरामोन ट्रेप, प्रकाश प्रपंच का प्रयोग करें तथा नीम सत्व 4 प्रतिशत का छिड़काव करें।
6. पपीते के पौधों को 30 सेमी उठी मेड़ पर 2 गुणा 2 मीटर की दूरी पर रोपाई करें तथा अंतवर्तीय फसल के रूप में मिर्च , टमाटर बैंगन न लगाएं।
सामान्यत: पपेन को पपीते के कच्चे फलों से निकला जाता है | पपेन के लिए 90-100 दिन विकसित कच्चे फलों का चुनाव करें | कच्चे चुने हुए फलों से सुबह ३ मि.मी. गहराई के 3-4 चीरे गोलाई आकार में लगाएं इसके पूर्व पौधों पर फलों से निकलने वाले दूध को एकत्रित करने के लिए प्लास्टिक के बर्तन को तैयार रखें |
फलों पर प्रथम बार के (चीरा लगाने के बाद ) 3-4 दिनों पश्चात पुन: चीरा लगाकर पपेन एकत्रित करें |
पपेन (दूध) प्राप्त होने के बाद उसमे 0.5 प्रतिशत पोटेशियम मेन्टाबाई सल्फेट परिरक्षक के रूप में मिलाये ताकि पपेन को ३-४ दिन तक सुरक्षित रखा जा सके पपेन को अच्छी तरह सुखाकर पपेन को प्रसंस्करण केंद्र भेजें |
इस प्रकार पपीते की पपेन के लिए उपयुक्त किस्मों सी ओ -2 एवं सी ओ – 5 के पौधों से 100 – 150 ग्राम पपेन प्रति पौधा प्रति वर्ष प्राप्त हो जाता है |
कच्चे पपेन को अच्छी तरह सुखाकर प्राप्त पाएं को प्रसंस्करण के लिए सयंत्र महाराष्ट्र के जलगॉव तथा येवला (नासिक ) में भेज दिया जाता है |
कच्चे फलों से पपेन निकालने के बाद उनसे अन्य प्रसंस्कृत उत्पाद जैसे टूटी फ्रूटी, मुरब्बा बनाया जा सकता है तथा चीरा लगे पके फलों का जैम जेली मुरब्बा रास या गुदा जिसे प्यूरी कहते है बनाकर डिब्बाबंद किया जाता है | भारत पपीता प्यूरी का एक बड़ा निर्यातक है |
पपीते के पौधों जिनको फरवरी में उठी हुई क्यारी पर लगाया गया हो ड्रिप सिंचाई व्यवस्था का उपयोग करें तथा जल विलेय उर्वरकों जैसे 19:19:19 को सिंचाई जल के साथ ड्रिप में देने से उर्वरक की बचत के साथ साथ उसकी उपयोग क्षमता में भी वृद्धि होती है तथा पौधों को आवश्यकतानुसार एवं शीघ्र पोषक तत्व उपलब्द्ध होने से उपज तथा गुणवत्ता दोनों में वृद्धि होती है |