- भूमि
- तापमान
- उचित समय
- भूमि की तेयारी
- उच्चतम वैरायटी
- बीज की मात्रा
- बीज उपचार
- बिजाई का तरीका
- सिंचाई
- उर्वरक
- खरपतवार
- रोग नियंत्रण
- अब फसल पकने का इंतजार करें
धनिया की सिंचित फसल के लिये अच्छा जल निकास वाली अच्छी दोमट भूमि सबसे अधिक उपयुक्त होती है और असिंचित फसल के लिये काली भारी भूमि अच्छी होती है। धनिया क्षारीय एवं लवणीय भूमि को सहन नही करता है। अच्छे जल निकास एवं उर्वरा शक्ति वाली दोमट या मटियार दोमट भूमि उपयुक्त होती है । मिट्टी का पी.एच. 6.5 से 7.5 होना चाहिए ।
इसके लिए 20-30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान अच्छा माना जाता है।
धनिया की फसल रबी मौसम में बोई जाती है । धनिया बोने का सबसे उपयुक्त समय 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर है ।
असिंचित धनिया की अच्छी पैदावार लेने के लिए गोबर खाद 20 टन/हेक्टेयर के साथ 40 कि.ग्रा. नत्रजन, 30 कि.ग्रा. स्फुर, 20 कि.ग्रा. पोटाश तथा 20 कि.ग्रा. सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से तथा 60 कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. स्फुर, 20 कि.ग्रा.पोटाश तथा 20 कि.ग्रा. सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचित फसल के लिए उपयोग में लाया जाना चाहिए।
धनिये की अधिक उत्पादन देने वाली किस्मों में हिसार सुगंध, आर सी आर 41, कुंभराज, आर सी आर 435, आर सी आर 436, आर सी आर 446, जी सी 2 (गुजरात धनिया 2), आरसीआर 684, पंत हरितमा, सिम्पो एस 33, जे डी-1, एसी आर 1, सी एस 6, जे डी-1, आर सी आर 480, आर सी आर 728 शामिल हैं।
सिंचित अवस्था में 15-20 कि.ग्रा./हे. बीज तथा असिंचित में 25-30 कि.ग्रा./हे. बीज की आवश्यकता होती है ।
भूमि एवं बीज जनित रोगों से बचाव के लिए बीज को कार्बेंन्डाजिम+थाइरम (2:1) 3 ग्रा./कि.ग्रा. या कार्बोक्जिन 37.5 प्रतिशत+थाइरम 37.5 प्रतिशत 3 ग्रा./कि.ग्रा.+ट्राइकोडर्मा विरिडी 5 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। बीज जनित रोगों से बचाव के लिए बीज को स्टे्रप्टोमाईसिन 500 पीपीएम से उपचारित करना लाभदायक रहता है।
बोने के पहले धनिया बीज को सावधानीपूर्वक हल्का रगडक़र बीजों को दो भागों में तोड़ कर दाल बना लें। धनिया की बोनी सीड ड्रील से कतारों में करें। कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 10-15 से. मी. रखें। भारी भूमि या अधिक उर्वरा भूमि में कतारों की दूरी 40 से.मी. रखना चाहिए। धनिया की बुवाई पंक्तियों में करनी चाहिए। कूड में बीज की गहराई 2-4 से.मी. तक होना चाहिए। बीज को अधिक गहराई पर बोने से अंकुरण कम प्राप्त होता है। इसलिए उचित गहराई का ध्यान रखते हुए इसकी बुवाई करनी चाहिए।
धनिया में पहली सिंचाई 30-35 दिन बाद (पत्ती बनने की अवस्था), दूसरी सिंचाई 50-60 दिन बाद (शाखा निकलने की अवस्था), तीसरी सिंचाई 70-80 दिन बाद (फूल आने की अवस्था) तथा चौथी सिंचाई 90-100 दिन बाद (बीज बनने की अवस्था ) करना चाहिए। हल्की जमीन में पांचवी सिंचाई 105-110 दिन बाद (दाना पकने की अवस्था) करना लाभदायक है। इसके अलावा यदि जरूरत हो तो आवश्यकतानुसार सिंचाई की जानी चाहिए।
असिंचित अवस्था में उर्वरको की संपूर्ण मात्रा आधार रूप में देना चाहिए। सिंचित अवस्था में नाइट्रोजन की आधी मात्रा एवं फास्फोरस, पोटाश एवं जिंक सल्फेट की पूरी मात्रा बोने के पहले अंतिम जुताई के समय देना चाहिए । नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा खड़ी फसल में टाप ड्रेसिंग के रूप में प्रथम सिंचाई के बाद देना चाहिए ।
धनिये में शुरुआती बढ़वार धीमी गति से होती हैं इसलिए निराई-गुड़ाई करके खरपतवारों को निकलना चाहिए। सामान्यत: धनिये में दो निराई-गुड़ाई पर्याप्त होती है । पहली निराई-गुड़ाई के 30-35 दिन में तथा दूसरी 60 दिन बाद करनी चाहिए। इससे बढ़वार अच्छी होने के साथ उत्पादन बढ़ता है। इसके अलावा खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमिथालीन 1 लीटर प्रति हेक्टेयर 600 लीटर पानी में मिलाकर अंकुरण से पहले छिडक़ाब करना चाहिए।
मोयला (एफिड) :- धनिया फसल में फूल आते वक्त या उसके बाद मोयला का प्रकोप होता है ये कीट पौधों के कोमल भागों का रस चूसते हैं जिससे पैदावार में भारी कमी आ जाती है इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफॉस 36 एस एल या मैलाथियान 50 ई सी का एक मिलीलीटर या क्यूनालफॉस 25 ई सी का दो मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर सांयकाल के समय छिड़काव करना चाहिए जिससे नुकसान न हो ।
कटवर्म एवं वायर वर्म :- इस कीट की सूण्डी भूरे रंग की होती है । शाम के समय यह सूण्डी पौधों को जमीन की सतह के पास से काटकर गिरा देती है । इसका प्रकोप फसल की प्राथमिक अवस्था में होता है जिससे फसल को अधिक नुकसान होता है । इस कीट के नियंत्रण के लिए मिथाइल पैराथियान 2 प्रतिशत या मैलाथियान 5 प्रतिशत चूर्ण को 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टर की दर से जुताई के समय भूमि में मिलावें ।
तना सूजन (स्टेम गाल) :- इस रोग के कारण तने तथा पत्तियों पर विभिन्न आकार के फफोले पड़ जाते हैं । पौधों की बढ़वार रूक कर पीले पड़ जाते हैं । पुष्पक्रम पर आक्रमण होने पर बीजों के आकार से बीजों की शक्ल तक ही बदल जाती है वातावरण में नमी अधिक होने पर बीमारी का प्रकोप बढ़ जाता है । नियंत्रण के रोगरोधी किस्म बोयें एवं नियंत्रण के लिए बीजों को बुवाई पूर्व थाइम 1.5 ग्राम और बाविस्टीन 1.5 ग्राम (1:1) प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें । खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखने पर बाविस्टीन 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें ।
उखटा रोग (विल्ट) :- इस रोग से धनिया फसल के पौधे हरे मुरझा जाते हैं यह पौधे की छोटी अवस्था में ज्यादा होता है परन्तु रोग का प्रकोप किसी भी अवस्था में हो सकता है । नियंत्रण के लिए गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करें उपयुक्त फसल चक अपनायें तथा बीज का उपचार बाविस्टीन 2.0 ग्राम या ट्राइकोडर्मा 4.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से करें ।
झुलसा (ब्लाईट) :- धनिया की फसल में इस रोग का प्रकोप होने पर पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं एवं पत्तियां झुलसी हुई दिखाई देती है । वर्षा होने पर रोग की सम्भावना बढ़ जाती है । धनिया फसल के इस रोग के उपचार हेतु बाविस्टीन 0.1 प्रतिशत या इन्डोफिल एम- 45, 0.2 प्रतिशत या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 0.3 प्रतिशत के घोल का छिड़काव करें ।
धनिया की फसल किस्मो के आधार पर बीज रोपाई के 110 से 130 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाती है । इसके पौधों की कटाई दो तरीके से की जाती है, जिसके लिए अलग-अलग समय निर्धारित है । यदि आप इसके पौधों की कटाई पत्तियों के लिए करना चाहते है, तो उसके लिए आपको पत्तियों के बड़ा होते ही काट लेना चाहिए इसके आलावा यदि आप बीज के रूप में फसल प्राप्त करना चाहते है, तो उसके लिए थोड़ा इंतजार करना होता है, जब इसके पौधों में लगी पत्तियां पीली पड़कर गिर जाती है और बीज पकना आरंभ कर देते है उस दौरान इसकी कटाई कर ली जाती है । कटाई के बाद इन्हे धूप में अच्छे से सुखा लिया जाता है पूरी तरह से सूखे बीजो से डंठलों को हटाकर बीज अलग कर लिए जाते है ।