Banana

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केला, आम के बाद भारत की महत्तवपूर्ण फल की फसल है। इसके स्वाद, पोषक तत्व और चिकित्सक गुणों के कारण यह लगभग पूरे वर्ष उपलब्ध रहता है यह सभी वर्गों के लोगों का पसंदीदा फल है। यह कार्बोहाइड्रेट और विटामिन, विशेष कर विटामिन बी का उच्च स्त्रोत है। केला दिल की बीमारियों के खतरे को कम करने में सहायक है। इसके अलावा गठिया, उच्च रक्तचाप, अल्सर, गैस्ट्रोएन्टराइटिस और किडनी के विकारों से संबंधित रोगियों के लिए इसकी सिफारिश की जाती है। केले से विभिन्न तरह के उत्पाद जैसे चिप्स, केला प्यूरी, जैम, जैली, जूस आदि बनाये जाते हैं। केले के फाइबर से बैग, बर्तन और वॉली हैंगर जैसे उत्पाद बनाये जाते हैं। रस्सी और अच्छी क्वालिटी के पेपर जैसे उत्पाद केले के व्यर्थ पदार्थ से तैयार किए जा सकते हैं। भारत में केला, उत्पादन में पहले स्थान पर और फलों के क्षेत्र में तीसरे नंबर पर है। भारत के अंदर महाराष्ट्र राज्य में केले की सर्वोच्च उत्पादकता है। केले का उत्पादन करने वाले अन्य राज्य जैसे कर्नाटक, गुजरात, आंध्र प्रदेश और आसाम है।

ग्रैंड नैने : यह किस्म 2008 में जारी की गई है और यह एशिया में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है।  यह औसतन 25-30 किलो गुच्छे निकालते हैं।

दूसरे राज्यों की किस्में : लाल केला, सफेद वेलाची, बसराई, रस्थली, बौना कैवेंडिश, रोबस्टा, पूवन, नेंद्रन, अर्धपुरी, न्याली

इसे मिट्टी की विभिन्न किस्मों हल्की से उच्च पोषक तत्वों वाली मिट्टी में उगाया जा सकता है जैसे कि गहरी गाद चिकनी, दोमट और उच्च दोमट मिट्टी केले की खेती के लिए उपयुक्त होती है। केले की खेती के लिए मिट्टी की पी एच 6 से 7.5 होनी चाहिए। केला उगाने के लिए, अच्छे निकास वाली, पर्याप्त उपजाऊ और नमी की क्षमता वाली मिट्टी का चयन करें। उच्च नाइट्रोजन युक्त मिट्टी,पर्याप्त फासफोरस और उच्च स्तर की पोटाश वाली मिट्टी में केले की खेती अच्छी होती है। जल जमाव, कम हवादार और कम पौष्टिक तत्वों वाली मिट्टी में इसकी खेती ना करें। रेतली, नमक वाली, कैल्शियम युक्त और अत्याधिक चिकनी मिट्टी में भी इसकी खेती ना करें।

बीज की मात्रा
यदि फासला  1.8×1.5 मीटर लिया जाये तो प्रति एकड़ में 1452 पौधे लगाएं। यदि फासला 2 मीटर x 2.5 मीटर लिया जाये, तो एक एकड़ में 800 पौधे लगाने की सिफारिश की जाती है।
बीज का उपचार
रोपाई के लिए, सेहतमंद और संक्रमण रहित जड़ों या राइज़ोम का प्रयोग करें। रोपाई से पहले, जड़ों को धोयें और क्लोरपाइरीफॉस 20 ई सी  2.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी में डुबोयें। फसल को राइज़ोम की भुंडी से बचाने के लिए रोपाई से पहले कार्बोफ्युरॉन 3 प्रतिशत सी जी 33 ग्राम में प्रति जड़ों को डुबोयें और उसके बाद 72 घंटों के लिए छांव में सुखाएं। गांठों को निमाटोड के हमले से बचाने के लिए कार्बोफ्युरॉन 3 प्रतिशत सी जी  50 ग्राम से प्रति जड़ का उपचार करें। फुज़ारियम सूखे की रोकथाम के लिए, जड़ों को कार्बेनडाज़िम 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में 15-20 मिनट के लिए डुबोयें। 

गर्मियों में, कम से कम 3 से 4 बार जोताई करें। आखिरी जोताई के समय, 10 टन अच्छी तरह से गली हुई रूड़ी की खाद या गाय का गला हुआ गोबर मिट्टी में अच्छी तरह मिलायें। ज़मीन को समतल करने के लिए ब्लेड हैरो या लेज़र लेवलर का प्रयोग करें। वे क्षेत्र जहां निमाटोड की समस्या होती है वहां पर रोपाई से पहले निमाटीसाइड और  धूमन, गड्ढों में डालें।

बिजाई का समय
बिजाई के लिए मध्य फरवरी से मार्च का पहला सप्ताह उपयुक्त होता है।
फासला
उत्तरी भारत में तटीय क्षेत्रों में, जहां उच्च नमी और तापमान जैसे 5-7 डिगरी सेल्सियस  से कम तापमान हो, वहां पर रोपाई के लिए 1.8मीटरx 1.8 मीटर से कम फासला नहीं होना चाहिए।
बीज की गहराई
केले की जड़ों को 45x 45×45 सैं.मी. या 60x60x60 सैं.मी. आकार के गड्ढों में रोपित करें। गड्ढों को धूप में खुला छोड़ें, इससे हानिकारक कीट मर जायेंगे। गड्ढों  को 10 किलो रूड़ी की खाद या गला हुआ गोबर, नीम केक 250 ग्राम और कार्बोफ्युरॉन 20 ग्राम से भरें। जड़ों को गड्ढें के मध्य में रोपित करे और मिट्टी के आसपास अच्छी तरह से दबायें। गहरी रोपाई ना करें।
बिजाई का ढंग
बिजाई के लिए, रोपाई ढंग का प्रयोग किया जाता है।
केला एक ऐसी फसल है जिसकी जड़ें ज्यादा गहराई तक नहीं जाती। इसलिए इसकी उत्पादकता बढ़ाने के लिए बड़ी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है। अच्छी उपज के लिए इसे 70-75 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है।  सर्दियों में 7-8 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें और गर्मियों में 4-5 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें। बारिश के मौसम में आवश्यकतानुसार सिंचाई करें। अतिरिक्त पानी को खेत में से निकाल दें क्योंकि यह पौधों की नींव और वृद्धि को प्रभावित करेगा।
 
उन्नत सिंचाई तकनीक जैसे तुपका सिंचाई का प्रयोग किया जा सकता है। रिसर्च के आधार पर केले की फसल में तुपका सिंचाई करने से 58 प्रतिशत पानी की बचत होती है और 23-32 प्रतिशत उपज में वृद्धि होती है। तुपका सिंचाई में, रोपाई से चौथे महीने तक 5-10 लीटर पानी प्रतिदिन प्रति पौधे में दें। पांचवे महीने से टहनियों के निकलने तक 10-15 लीटर पानी प्रतिदिन प्रति पौधे में दें और टहनियों के निकलने से तुड़ाई के 15 दिन पहले 15 लीटर पानी प्रतिदिन प्रति पौधे में दें। 

खादें (ग्राम प्रति वृक्ष)

महीनेयूरियाDAPMOP
फरवरी – मार्च190
मार्च6060
जून6060
जुलाई8070
अगस्त8080
सितंबर8080

यूरिया 450 ग्राम (नाइट्रोजन 200 ग्राम) और म्यूरेट ऑफ पोटाश 350 ग्राम (म्यूरेट ऑफ पोटाश 210 ग्राम) को 5 भागों में बांटकर डालें।

रोपाई से पहले गहरी जोताई और क्रॉस हैरो से जोताई करके नदीनों को निकाल दें। यदि हमला घास प्रजातियों द्वारा हो तो नदीनों के अंकुरण से पहले ड्यूरॉन 80 प्रतिशत डब्लयु पी 800 ग्राम को 150 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में डालें।

रोपाई के बाद फसल 11-12 महीनों में तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। मार्किट की आवश्यकताओं के अनुसार केले के पूरी तरह पक जाने पर तुड़ाई करें। लोकल मार्किट के लिए फलों की तुड़ाई पकने की अवस्था पर करें और लंबी दूरी वाले स्थानों पर ले जाने के लिए 75-80 प्रतिशत पक जाने पर फलों की तुड़ाई करें। जबकि निर्यात के लिए एक जगह से दूसरी जगह ले जाने से एक दिन पहले या उसी दिन तुड़ाई करें। गर्मियों में फल की तुड़ाई दिन में करें और सर्दियों में जल्दी सुबह तुड़ाई ना करें।
हानिकारक कीट और रोकथाम :-
फल की भुंडी : यदि फल की भुंडी का हमला दिखे तो तने के चारों तरफ मिट्टी में कार्बरील 10-20 ग्राम प्रति पौधे में डालें।
राइज़ोम की भुंडी : इसकी रोकथाम के लिए सूखे हुए पत्तों को निकाल दें और बाग को साफ रखें। रोपाई से पहले राइज़ोम को मिथाइल ऑक्सीडेमेटन 2 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में डुबो दें। रोपाई से पहले केस्टर केक 250 ग्राम या कार्बरील 50 ग्राम या फोरेट 10 ग्राम प्रति गड्ढे में डालें।
केले का चेपा : यदि इसका हमला दिखे तो मिथाइल डेमेटन 2 मि.ली या डाइमैथोएट 30 ई सी 2 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।
थ्रिप्स : इसकी रोकथाम के लिए मिथाइल डेमेटन 20 ई सी 2 मि.ली. या मोनोक्रोटोफॉस 36 डब्लयु एस सी 2 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।
  • बीमारियां और रोकथाम
सिगाटोका पत्तों पर धब्बा रोग : प्रभावित पत्तों को निकालें और जला दें। जल जमाव हालातों के लिए खेत में से पानी के निकास का उचित प्रबंध करें।
किसी एक फंगसनाशी जैसे कार्बेनडाज़िम 2 ग्राम या मैनकोजेब 2 ग्राम या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम या ज़ीरम 2 मि.ली. या क्लोरोथालोनिल 2 ग्राम को प्रति लीटर पानी मे मिलाकर स्प्रे करें। घुलनशील पदार्थ जैसे सैंडोविट, टीपॉल 5 मि.ली. को 10 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे में मिलायें।
एंथ्राक्नोस :  यदि इसका हमला दिखे तो कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम  या बॉर्डीऑक्स मिश्रण 10 ग्राम या क्लोरोथालोनिल फंगसनाशी 2 ग्राम या कार्बेनडाज़िम 1 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।
पनामा बीमारी : यदि इसका हमला खेत में दिखे तो विभिन्न तरह के प्रभावित पौधों को उखाड़े और खेत से दूर ले जाकर नष्ट कर दें। उसके बाद चूना 1-2 किलो गड्ढों में डालें। रोपाई से पहले जड़ों को कार्बेनडाज़िम 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में डुबोयें और रोपाई के  6 महीने  कार्बेनडाज़िम छिड़कें।
फुज़ेरियम सूखा : प्रभावित पौधों को निकाल दें और 1-2 किलो चूना प्रति पौधे में डालें। रोपाई के बाद कार्बेनडाज़िम 60 मि.ग्रा.  दूसरे, चौथे, 6वें महीने में प्रति वृक्ष में प्रति फल पर डालें। कार्बेनडाज़िम 2 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर धब्बों पर छिड़कें।
गुच्छे बनना : यह चेपे के हमले के कारण होता है। पौधे के प्रभावित भागों को निकालें और खेत से दूर ले जाकर नष्ट कर दें। यदि खेत में चेपे का हमला दिखे तो डाइमैथोएट 20 मि.ली. को 10 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 

रोपाई के बाद फसल 11-12 महीनों में तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है।

तुड़ाई के बाद, क्यूरिंग, धुलाई, छंटाई, पैकेजिंग, स्टोरेज, परिवहन और मार्किटिंग आदि तुड़ाई के बाद की मुख्य क्रियाएं हैं।
आकार, रंग और पकने के आधार पर छंटाई की जाती है। छोटे, ज्यादा पके हुए, नष्ट हुए  और बीमारी से प्रभावित फलों को निकाल  दें। आमतौर पर फलों की तुड़ाई, फल पकने से पहले की अवस्था में की जाती है। उसके बाद, तैयार रंग विकसित करने के लिए फलों को इथरिल की कम मात्रा में पकाया जाता है।
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