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किसानों के लिए सरकार की प्राकृतिक खेती योजना
Table of Contents किसानों के लिए सरकार की प्राकृतिक खेती योजना राज्य सरकार ने किसानों को प्राकृतिक खेती अपनाने में मदद करने के लिए एक
फसल अवशेष प्रबंधन परियोजना (₹ 1,000/- प्रति एकड़)
राज्य सरकार ने 2024-2025 के लिए फसल अपशिष्ट प्रबंधन योजना शुरू की है। इस योजना का उद्देश्य किसानों को धान की पराली को मौके पर और मौके पर ही प्रबंधित करने के लिए प्रोत्साहित करना है।
फ़ार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइज़ेशन :
FPOs, किसान-सदस्यों द्वारा नियंत्रित स्वैच्छिक संगठन हैं, FPOs के सदस्य इसकी नीतियों के निर्माण और निर्णयन में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। FPOs की सदस्यता लिंग, सामाजिक, नस्लीय, राजनीतिक या धार्मिक भेदभाव के बिना उन सभी लोगों के लिये खुली होती है जो इसकी सेवाओं का उपयोग करने में सक्षम हैं और सदस्यता की ज़िम्मेदारी को स्वीकार करने के लिये तैयार हैं। FPOs के संचालक अपने किसान-सदस्यों, निर्वाचित प्रतिनिधियों, प्रबंधकों एवं कर्मचारियों को शिक्षा और प्रशिक्षण प्रदान करते हैं ताकि वे अपने FPOs के विकास में प्रभावी योगदान दे सकें। गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कुछ अन्य राज्यों में FPOs ने उत्साहजनक परिणाम दिखाए हैं और इनके माध्यम से किसान अपनी उपज से बेहतर आय प्राप्त करने में सफल रहे हैं। उदाहरण के लिये राजस्थान के पाली ज़िले में आदिवासी महिलाओं ने एक उत्पादक कंपनी का गठन किया और इसके माध्यम से उन्हें शरीफा/कस्टर्ड एप्पल के उच्च मूल्य प्राप्त हो रहे हैं।
किसान उत्पादक संगठन :
एफपीओ (FPO) का फुल फॉर्म है - फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन(Farmer Producer Organization).यह किसानों का एक स्वैच्छिक संगठन होता है, जिसे किसान-सदस्य ही नियंत्रित करते हैं.किसान उत्पादक संगठन 11 लोग मिलकर बनाते हैं FPO के सदस्य संगठन की नीतियों और फ़ैसलों में सक्रिय रूप से हिस्सा लेते हैं. भारत सरकार, छोटे और सीमांत किसानों की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए, FPO को बढ़ावा दे रही है. FPO से जुड़ने से किसानों की आर्थिक शक्ति बढ़ती है और बाज़ार से उनका जुड़ाव भी बेहतर होता है. इससे किसानों की आमदनी में भी सुधार होता है
FPO से जुड़ने के फ़ायदे :
औसत जोत आकार की चुनौती का समाधान: भारत में औसत जोत का आकार वर्ष 1970-71 के 2.3 हेक्टेयर (हेक्टेयर) से घटकर वर्ष 2015-16 में 1.08 हेक्टेयर रह गया। साथ ही कृषि क्षेत्र में छोटे और सीमांत किसानों की हिस्सेदारी वर्ष 1980-81 के 70% से बढ़कर वर्ष 2015-16 में 86% हो गई।
FPOs किसानों को सामूहिक खेती के लिये प्रोत्साहित कर सकते हैं और जोत के छोटे आकार से उत्पन्न उत्पादन से उत्पादकता संबंधी चुनौतियों को संबोधित कर सकते हैं।
इसके अलावा कृषि नवोन्मेष और उत्पादकता में वृद्धि से अतिरिक्त रोज़गार सृजन में भी सहयता प्राप्त होगी।
कॉर्पोरेट्स के साथ बातचीत: FPO किसानों को मोलभाव के दौरान बड़े कॉर्पोरेट उद्यमों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने में मदद कर सकता है, क्योंकि यह सदस्यों को एक समूह के रूप में बातचीत एवं समझौता करने में सक्षम बनाता है। साथ ही यह आगत और उत्पाद बाज़ार में किसानों की सहायता कर सकता है।
एकत्रीकरण: FPO सदस्य किसानों को कम लागत और गुणवत्तापूर्ण इनपुट उपलब्ध करा सकता है। उदाहरण के रूप में फसलों के लिये ऋण, मशीनरी की खरीद, कृषि-इनपुट (उर्वरक, कीटनाशक आदि) और कृषि उपज का प्रत्यक्ष विपणन के संदर्भ में।
इससे सदस्य समय, लेन-देन की लागत, डिस्ट्रेस सेल, मूल्य में उतार-चढ़ाव, परिवहन, गुणवत्ता रखरखाव आदि के रूप में बचत कर सकेंगे।
सामाजिक प्रभाव: FPO के रूप में एक सामाजिक पूंजी का विकास होगा, क्योंकि इससे FPO में लैंगिक भेदभाव को दूर करने और संगठन के निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिला किसानों की भागीदारी में सुधार हो सकता है।
यह सामाजिक संघर्षों को कम करने के साथ ही समुदाय में बेहतर भोजन एवं पोषण को बढ़ाने में सहायता कर सकता है।
इसके साथ साथ-
- किसानों का मनोबल बढ़ता है
- खेती-किसानी में आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है
- एकजुटता से खेती-किसानी से जुड़ी चुनौतियों को हल किया जा सकता है
- सामाजिक और आर्थिक सहयोग की मिसाल बनती है
- संसाधनों, जानकारी, और बाज़ार से जुड़ने में मदद मिलती है
- फ़सलों की विशेषज्ञता हासिल होती है
- प्रोसेसिंग और वैल्यू ऐडिशन में मदद मिलती है
- बड़े पैमाने पर काम करने में आसानी होती है
- बेहतर मोलभाव करने की ताकत मिलती है
एफपीओ की चिंताएं
एफपीओ से जुड़ी कई समस्याएं अभी भी अनसुलझी हैं, जिनमें से कुछ का उल्लेख नीचे किया गया है- संस्थागत वित्त प्राप्त करने में कठिनाई। बैंक आमतौर पर एफपीओ को ऋण देने से कतराते हैं क्योंकि उनके पास संपार्श्विक के रूप में काम करने के लिए अपनी खुद की संपत्ति नहीं होती है। नतीजतन, एफपीओ को गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों या माइक्रो-फाइनेंस कंपनियों से ऋण पर निर्भर रहना पड़ता है। उन्हें बहुत ऊंची ब्याज दरों पर अपनी कार्यशील पूंजी जुटाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। नियमित कृषि बाजारों में काम करने में असमर्थता। किसान उत्पादक संगठनों को लाइसेंस प्राप्त व्यापारियों द्वारा किए गए प्रतिरोध के कारण विनियमित मंडियों में काम करने में आमतौर पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन व्यापारियों की बाजारों पर महत्वपूर्ण पकड़ होती है। अनुबंध कृषि विनियमों के अंतर्गत कानूनी मान्यता का अभाव। यहां तक कि सरकार द्वारा उदार ब्याज अनुदान के साथ सस्ते बैंक ऋण की सुविधा भी, जो व्यक्तिगत किसानों को उपलब्ध है, एफपीओ को नहीं दी जाती है। इसके अलावा, सहकारी समितियों, स्टार्टअप्स आदि को दी जाने वाली कई अन्य रियायतें, कर छूट, सब्सिडी और लाभ एफपीओ को नहीं दिए गए हैं।
FPOs के संवर्द्धन हेतु सरकार के प्रयास :
वर्ष 2011 से सरकार द्वारा ‘लघु कृषक कृषि व्यापार संघ’ (Small Farmers’ Agri-Business Consortium- SFAC), नाबार्ड, राज्य सरकारों और गैर-सरकारी संगठनों के तहत FPOs को सक्रियता के साथ बढ़ावा दिया जा रहा है।
केंद्रीय बजट 2018-19 में FPOs के लिये पाँच वर्ष की कर छूट सहित कई सहायक उपायों की घोषणा की गई, जबकि केंद्रीय बजट 2019-20 के तहत अगले पाँच वर्षों में 10,000 नए FPOs की स्थापना करने की बात की गई थी।
एक जनपद एक उत्पाद क्लस्टर: हाल ही में केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा FPOs के महत्त्व को रेखांकित किया गया, जिन्हें उत्पादन क्लस्टर में विकसित किया जाना है। उत्पादन क्लस्टर में आकारिक मितव्ययिता का लाभ उठाने और सदस्यों के लिये बाज़ार पहुँच में सुधार हेतु कृषि और बागवानी उत्पादों की खेती की जाती है।
एक जनपद एक उत्पाद क्लस्टर फसलों के उत्पादन में विशेषज्ञता और कृषि उत्पादों के बेहतर प्रसंस्करण, विपणन, ब्रांडिंग तथा निर्यात को बढ़ावा देगा।
सामूहिक कृषि: FPOs के माध्यम से एक ही क्षेत्र में उपस्थित अलग-अलग किसानों के छोटी जोत वाले खेतों का उपयोग करते हुए सामूहिक कृषि को बढ़ावा दिया जा सकता है।
इसके साथ ही आपूर्ति शृंखला को मज़बूत करने और नए बाज़ारों को खोजने पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिये। सामूहिक खेती में महिला किसान प्रमुख भूमिका निभाएंगी।
प्रारंभ में, एफपीओ बनाने और बढ़ावा देने के लिए तीन कार्यान्वयन एजेंसियां होंगी, अर्थात्
- लघु कृषक कृषि-व्यवसाय संघ (एसएफएसी)
- राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (एनसीडीसी)
- राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक ( नाबार्ड )।
- यदि राज्य चाहें तो वे डी.ए.सी.एंड.एफ.डब्लू. के परामर्श से अपनी कार्यान्वयन एजेंसी भी नामित कर सकते हैं। कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग (डीएसीएंडएफडब्ल्यू) कार्यान्वयन एजेंसियों को क्लस्टर/राज्य आवंटित करेगा, जो बदले में राज्यों में क्लस्टर-आधारित व्यवसाय संगठन का गठन करेंगे।
आगे की राह :
FPOs की संख्या में वृद्धि: कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि भारत जैसे बड़े देश के लिये हमें एक लाख से अधिक FPOs की आवश्यकता है, जबकि वर्तमान में देश में सक्रिय कुल FPOs की संख्या 10,000 से भी कम है। इस संदर्भ में सरकार ने FPOs को बढ़ावा देने के लिये कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। संरचनात्मक मुद्दों को संबोधित करना: कई FPOs को अपर्याप्त तकनीकी कौशल, अपर्याप्त पेशेवर प्रबंधन, कमज़ोर वित्तीय व्यवस्था, ऋण की अपर्याप्त पहुँच, जोखिम शमन तंत्र की कमी और बाज़ार तथा बुनियादी ढाँचे का अभाव जैसी अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। FPOs के विस्तार के साथ कार्यशील पूंजी, विपणन, बुनियादी ढाँचे आदि से संबंधित अन्य उपरोक्त मुद्दों को संबोधित करना होगा। क्रेडिट प्राप्त करना FPOs के लिये सबसे बड़ी समस्या रही है। ऐसे में FPOs को ऋण देने हेतु बैंकों में विशेष योजनाओं/उत्पादों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये। FPOs को अधिक प्रभावी बनाने के लिये उन्हें इनपुट कंपनियों, तकनीकी सेवा प्रदाताओं, विपणन/प्रसंस्करण कंपनियों, खुदरा विक्रेताओं, आदि के साथ जोड़ना होगा। उन्हें बाज़ारों, कीमतों और अन्य जानकारियों के साथ सूचना प्रौद्योगिकी में दक्षता प्रदान करने की आवश्यकता है।