- यह रोग मुख्यतः किसमें पाया जाता है
- रोग कारक
- फैलाव का कारण
- रोग का प्रसार प्रक्षेत्र
- रोगजनन
- लक्षण (symptoms)
- उपचार एवं रोकथाम
- रोकथाम व नियंत्रण ( prevention and control )
यह रोग मुख्यतः बड़े जानवरों जैसे गाय, भैंस, भेड़ इत्यादि मे देखने को मिलता है। यह एक जीवाणु जनित रोग है। मुख्य रूप से यह गाय मे ज्यादा देखने को मिलता है। यह एक संक्रामक बीमारी है। यह रोग प्रायः सभी स्थानों पर पाया जाता है लेकिन गरम व नम जलवायु वाले प्रदेशों मे ज्यादा पाया जाता है। बरसात के मौसम मे यह रोग ज्यादा फैलता है और इस रोग से मृत्यु दर भी ज्यादा रहती है। यह रोग मुख्यतः जवान जानवरों छह माह से दो साल के पशुओंद्ध मे देखने को मिलता है। किसानबंधु इसे लंगड़ा बुखार के नाम से भी जानते है। इस रोग मे कंधे व पुट्ठे की मांसपेशियों मे गैस भर जाने के कारण सूजन आ जाती है व तेज बुखार और जहरबाद सेप्टिसिमिया के कारण जानवर की मृत्यु हो जाती है। किसानों एवं पशुपालकों को इस रोग की जानकारी के अभाव के कारण बहुत ज्यादा आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ा है।
यह एक जीवाणु जनित रोग है जोकि क्लोस्ट्रीडियम चौवाई नामक जीवाणु से होता है। यह एक ग्राम बीजाणु बनाने वाला रॉड के आकार का जीवाणु है। इसके बीजाणु पर्यावरणीय परिवर्तनों और कीटाणुनाशकों के लिए अत्यधिक प्रतिरोधी हैं इस कारण यह जीवाणु कई वर्षों तक मिट्टी में बना रहता है।
लंगड़ा बुखार एक मृदा जनित संक्रमित रोग है। बीजाणु संक्रमित भोजन खाने से इस रोग के जीवाणु आहारनली के माध्यम से शरीर मे प्रवेश कर जाते है। संक्रमित घाव के कारण भेड़ में भी यह रोग फैलता है उदाहरण के लिए बाल काटते समय त्वचा के घावों का संक्रमण ।
यह रोग प्रायः सभी स्थानों पर पाया जाता है लेकिन गरम व नम जलवायु वाले प्रदेश जैसे कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु इत्यादि जगह पर ज्यादा देखा गया है। देश मे 75% से 80% इस रोग से ग्रसित जानवर मुंबई, हैदराबाद, मैसूरु और चेन्नई मे मिलते है तथा 20% से 25% मामले देश के बाकी जगह मे मिलते है। वर्षा ऋतु मे इस रोग के फैलने की संभावना ज्यादा होती है। इस रोग मे मृत्यु दर भी ज्यादा रहती है। यह रोग गाय, भैंस, भेड़ के साथ.साथ जंगली प्रजातियों जैसे हिरण और एन्टीलोप मे भी देखने को मिलता है।
जानवरों के द्वारा दूषित मिट्टी व संक्रमित चारे आदि को खाने से बीजाणु आहारनली के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर जाते हैं तथा मांसपेशियों तक पहुंचकर कुछ समय तक शांत पड़े रहते हैं बाद में ये बीजाणु अनुकूल परिस्थितियों मे जीवाणुओं को उत्पन्न करते है फिर ये जीवाणु संख्या में लगातार वृद्धि करते रहते हैं। ये मुख्यतः कंधे व पुट्ठे की मांसपेशियों मे पहुँचकर वहाँ इनके द्वारा उत्पन्न किए गए चार प्रकार के टॉक्सिन अल्फा, बीटा, गामा, डेल्टा से मांसपेशियों के रेशे व रक्त नलियां गलने लगतीं है मांसपेशियों के गलने व सड़ने से गैस बनने लगती है तथा रक्त नलियों के गलने से रक्त बाहर आकर त्वचा के नीचे एकत्रित होने लगता है जिसके फलस्वरूप कंधे व पुट्ठे की मांसपेशियों में छलनी जैसे छेद बनने लग जाते हैं साथ ही साथ इनमे गैस भी भरने लगती है। गैस भरी जगह पर हाथ लगाने पर चरचर(crepitating sound) जैसी आवाज उत्पन्न होती है। इस रोग के बीजाणु व जीवाणु आंत में शरीर के दूसरी जगह जैसे जीभ,जबड़े, हृदय व अन्य अंगों की मांसपेशियों में पहुँचकर ऐसी ही स्थिति पैदा कर देते है । इस अवस्था में शरीर में सेप्टिसीमिया हो जाता है और जानवर की मृत्यु हो जाती है।
1. जानवरों मे तेज बुखार (105°F – 107°F) देखने को मिलता है।
2. जानवर खाना-पीना एवं जुगाली करना बंद कर देता है ।
3. रोगी पशु के कन्धे, गर्दन ,जाँघ अथवा पूठ्ठे पर सूजन आ जाती है तथा इस सूजन वाले हिस्से को दबाने पर चर-चर (crepitating sound) की आवाज आती है, हालांकि भेड़ों मे कई बार आवाज नही आती है ।
4. जानवर की आँखेँ लाल हो जाती है ।
5. रोगी जानवर अचानक बुरी तरह लंगड़ाने लगता है और उसकी चाल मे अकड़न आ जाती है जिसके साथ ही वह एक स्थान से आगे बढ़ने की कोशिश भी नही करता ।
6. प्रारंभ मे यह सूजन (Necrotizing myositis) गरम व पीड़ादायक होतीं है लेकिन बाद मे ठंडी व पीडारहित होती है ।
7. सूजन मे यदि चीरा लगाया जाये तो उसमे से झागदार काला, दुर्गन्धयुक्त स्राव निकलता है ।
8. अन्त मे पशु का तापमान गिरने लगता है तथा पशु की मृत्यु हो जाती है ।
9. कई बार रोगी पशु बगैर कोई लक्षण दिखाये भी मर सकते है।
- यह एक जीवाणु जनित रोग है। इस रोग का उपचार बहुत जटिल है क्योंकि यह रोग बहुत जल्दी फैलता है अगर सही समय पर पशु चिकित्सक की देखरेख मे उपचार उपलब्ध करा दें तो रोगी जानवर सही हो सकता है ।
- रोगी पशु को स्वस्थ पशुओ से अलग कर दें ।
- पशु चिकित्सक द्वारा सूजन वाले भाग को चीरा लगवाकर उसका काला झागदार, बदबूदार रक्त को निकलवा देना चाहिए, परन्तु यह बहुत ही सावधानीपूर्वक व साफ तरीके से करना चाहिए ।
- इसके अलावा रोगी जानवर को पशु चिकित्सक द्वरा लक्षण आधारित उपचार प्रदान करवाना चाहिए।
- यह रोग एक संक्रामक रोग है इसलिए रोगी जानवर के आस पास रहने वाले सभी जानवर संक्रमित हो सकते है और इस रोग का जीवाणु मिट्टी मे भी रहता है अतः रोगी जानवर को स्वस्थ पशुओ से दूर रखना चाहिये तथा अलग रखकर ही उपचार करना चाहिए।
- वर्षा ऋतु शुरु होने से पहले जानवरों का टीकाकरण करवाना चाहिए।
- 3 माह के बाद वाले सभी जानवरों को टीका लगवाना चाहिए।
- जानवरों के आवास की सम्पूर्ण रूप से साफ सफाई एवं निस्संक्रामक दवाइयों का उपयोग करना चाहिए।
- बीमार पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए।
- समय- समय पर पशुचिकित्सकों द्वारा पशुओं की जाँच करवाना चाहिए ।
- भोजन – पानी एवं दवाइयों का समय के हिसाब से उचित प्रबंधन होना चाहिए ।
- पशुओं के आवास में नमी, प्रकाश आदि चीजों का सम्पूर्ण रूप से ध्यान रखना चाहिए।