खुम्ब की खेती

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सदियों से खुम्ब (मशरुम) ने मनुष्य को आकर्षित किया है इनके रंग-बिरंगे, सुन्दर फलनकाय सहज ही हमारा ध्यान खींच लेते हैं। मशरुम एक प्रकार का मांशल कवक है जो अत्यंत  स्वादिष्ट एवं पौष्टिक शुद्ध शाकाहार भोजन है। प्रकृति में पाये जाने वाले सभी खुम्ब खाने योग्य नहीं हैं उनमें से कुछ विषैले भी होते हैं। अभी तक विश्वभर में 1600 से अधिक खुम्ब की किस्में मिल चुकी हैं जिनमें से 100 प्रकार के मशरुम हमारे भोजन में सम्मिलित हो चुके हैं।

उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के मशरुम की खेती करने का समय

  • सफेद बटन मशरुम (अगेरिकस बाइस्पोरस)       – मध्य सितम्बर से मघ्य मार्च तक
  • शिटाके मशरुम (लैन्टीनूला इडोड्‌स)        –     सितम्बर मध्य से फरवरी
  • धान पुआल खुम्ब (वोल्वेरिएला प्रजातियाँ) –     मई से मध्य अगस्त
  • आयस्टर मशरुम (प्लूरोट्‌स प्रजातियाँ)     –     अगस्त से अप्रैल
  • दूधिया मशरुम (कैलोसाइबी इण्डिका)      –     मार्च से मध्य अगस्त

1. मशरुम की खेती अन्य फसलों की उपज से बचे पदार्थों जैसे कि अनाज वाली फसलों का भूसा अथवा अन्य कृषि-अवशेषों पर की जाती है जिससे उनका पुनर्चक्रण होकर उच्च कोटि के पोषक तत्वों एवं औषधीय गुणों से भरपूर मशरुम प्राप्त होता है।

2. इससे हमारे पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होता। मशरुम की खेती के बाद बचा हुआ कम्पोस्ट और भूसा फिर से कार्बनिक खाद के रुप में इस्तेमाल किया जा सकता है और यह जानवरों को खिलाने के काम भी आ सकता है या उसे पूरी तरह सड़ाने के बाद अपने खेत की मिट॒टी में मिला सकते हैं।

3. मशरुम की खेती के लिए अन्य फसलों की तरह उपजाऊ जमीन की आवश्यकता नहीं होती बेकार पड़ी बंजर जमीन पर मशरुम फार्म बना सकते हैं और इस प्रकार से यह खेती छोटे किसानों के लिए काफी लाभदायी है।

4. किसान मशरुम की खेती को अपनी सामान्य खेती के साथ-साथ दो फसलों के बीच मिलने वाले समय के दौरान अतिरिक्त आय के साधन के रुप में कर सकते हैं।

5. गाँव के बेरोजगार युवकों और मजदूर भाइयों के लिए यह खेती स्वरोजगार का अवसर प्रदान करती है।

6. घरेलू महिलाओं के आर्थिक रुप से स्वावलम्बी बनाने के लिए भी मशरुम की खेती में अच्छी संभावनाएँ हैं।

7. मशरुम की खेती में निर्यात की प्रबल संभावनाएँ हैं।

8. यदि प्रति इकाई क्षेत्र उत्पादन की दृष्टि से देखें तो मशरुम की खेती में उत्पादन किसी भी अन्य फसल से कई गुणा ज्यादा है।

भारतवर्ष एवं अन्य सभी खुम्ब उत्पादक देशों में व्यावसायिक रुप से उगाए जाने वाले खुम्बों में बटन मशरुम (अगेरिकस बाइस्पोरस) ही सबसे अधिक उगाया जाता है। कृत्रिम रुप से विभिन्न वातावरण में इसे पूरे साल उगाया जा सकता है और इसकी चार फसलें ले सकते हैं। जबकि उत्तर भारत की प्राकृतिक परिस्थितियों में यह खुम्ब अक्तूबर से मार्च के बीच उगाया जाता है और तीन-तीन महीने की अवधि की दो फसलें प्राप्त कर सकते हैं।

बटन मशरुम के कवक जाल की वृद्धि के लिए 22-25 डिग्री से. तापमान सबसे अनुकूल होता है जबकि फलनकाय बनने के लिए अनुकूलतम तापमान 16-18 डिग्री से. से अधिक तापमान हानिकारहो जाता है तथा 14 डिग्री से. के नीचे तापमान पहुँचने पर कवक जाल (कायिक वृद्धि) और फलनकाय, दोनों का बनना कम हो जाता है। 80 से 85 प्रतिशत आपेक्षिक आर्द्रता, मशरुम- वृद्धि के लिए आवश्यक है।

अगेरिकस की एक अन्य प्रजाति अ. बाइटोरक्विस (ए. बिटोरक्वीस) भी व्यावसायिक रुप से उगायी जाती है। इसकी कायिक वृद्धि के लिए 25-30 डिग्री से. तापमान और फलनकाय बनने के लिए 20-25 डिग्री से. तापमान अनुकूलतम है वैसे उत्तर भारत में बटन मशरुम की खेती के लिए अ. बाइस्पोरस की ही सिफारिश की जाती है क्योंकि यह प्रजाति अधिक लोकप्रिय है।

 

बटन मशरुम की खेती कृत्रिम रुप से तैयार किए गए कम्पोस्ट पर की जाती है जिसके बनाने की दो विधियाँ हैं – (1) लम्बी विधि और (2) छोटी विधि या पाशच्यूराइजेशन विधि। मशरुम की खेती के लिए आवश्यक चीजें इस प्रकार से हैं – मशरुम घर, 15 सें.मी. से 100 सें.मी. परिणाम की ट्रे अथवा 30 से 45 सें.मी. परिमाक के थेले कम्पोस्ट बनाने के लिए चबूतरा, कम्पोस्ट बनाने की सामग्री, मशरुम स्पान, केसिंग मिट॒टी आदि।

एक अच्छा मशरुम घर हवादार एवं तापरोधी होना चाहिए ताकि उसके भीतर तापमान और आपेक्षिक आर्द्रता को नियंत्रित रखा जा सके। इसके भीतर 1500-2500 लक्स तीव्रता के प्रकाश, एग्जॉस्ट पंखे और कूलर या एयर कंडीशनर की व्यवस्था होनी चाहिए। इसके भीतर ईंटों या कंक्रीट का बना पक्का फ़र्श होना चाहिए।

पादप-अवशेष मुख्यतः सेल्यूलोज, हेमीसेल्यूलोज और लिग्नन के बने होते हैं जो मशरुम की वृद्धि हेतु तुरन्त उपलब्ध नहीं होते। इन पादप अवशेषों को कम्पोस्टिंग के दौरान इस प्रकार परिवर्तित किया जाता है कि पोषक तत्व मशरुम को उपलब्ध हो सके। मशरुम-कम्पोस्ट बनना एक जटिल जैव रसायन प्रक्रिया है। इसमें सेल्यूलोज, हेमी सेल्यूलोज और लिग्निन आंशिक रूप् से सड़ जाते हैं और अकार्बनिक नाइट्रोजन से सूक्ष्मजीवी प्रोटीन का संशलेषक होता है। कम्पोस्टिंग के दौरान वायवीय परिस्थितियों में जटिल किण्वन प्रक्रिया होती है, जिसमें एक के बाद एक मध्यम तापरागी (मीजोफिलिक) और तापरागी (थर्मोफिलिक) सूक्ष्मजीव भाग लेते हैं। इस कारण से ढेऱ का भीतरी तापमान 75-80 डिग्री से. तक हो जाता है। इस प्रक्रिया में लिग्नोप्रोटीन कॅम्प्लेक्स बनता है जो अ. बाइस्पोरस की वृद्धि के लिए अनुकूल परिस्थिति है। नाइट्रोजन-स्रोतों को कम्पोस्ट में मिलाने के कारण कार्बन/नाइट्रोजन अनुपात भी कम हो जाता है |

कटा हुआ गेहूँ का भूसा/धान पुआल (10-15 सें.मी. लम्बा)250 कि.ग्रा
गेहूँ/धान का छिलका (चोकर)20-25 कि.ग्रा.
अमोनियम सल्फेट/कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट4 कि.ग्रा.
यूरिया3 कि.ग्रा.
म्यूरेट ऑफ पोटाश4 कि.ग्रा.
जिप्सम20 कि.ग्रा.
मेलाथियान40 कि.ग्रा.

कम्पोस्ट बनाने के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला भूसा एक साल से अधिक पुराना वारिश में भींगा नहीं होना चाहिए। 250 कि.ग्रा. गेहूँ के भूसे के स्थान पर 400 कि.ग्रा. धान पुआल का भी प्रयोग कर सकते हैं। यदि धान का भूसा प्रयोग कर रहे हों तो साथ में 6 किलो बिनौले (कपास का बीज) के आटे का प्रयोग भी करें।

पहली पलटाई छठे दिन की जाती है और तत्पश्चातत्‌ पलटाई, 10, 13, 16, 19, 22 और 25वें दिन करते हैं। इस प्रकार से तैयार कम्पोस्ट को 26वें या 27वें दिन ट्रे में भर दिया जाता है।

दूसरी पलटाई के समय कैल्शियम या चॉक पाउडर मिलाते हैं।

तीसरी पलटाई       – जिप्सम मिलाया जाता है।

चौथी पलटाई        – बिनौले का आटा मिलाया जाता है।

अन्तिम पलटाई     के समय 15 मि.लि. मेलाथियॉन और 25 मि.लि. नीमागोन मिला सकते हैं।

एक अन्य फार्मूला

गेहूँ का भूसा300 कि.ग्रा
अमोनियम सल्फेट या कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट9 कि.ग्रा.
सुपर फॉस्फेट3 कि.ग्रा
यूरिया4 कि.ग्रा
म्यूरेट ऑफ पोटाश/सल्फेट ऑफ पोटाश3 कि.ग्रा
गेहूँ का चोकर25 कि.ग्रा
शीरा5 कि.ग्रा
जिप्सम30 कि.ग्रा
मेलाथियान15 मि.लि.
नीमागोन25-30 मि.लि.

 

कम्पोस्ट दो विधियों द्वारा तैयार किया जा सकता है – (1) लम्बी विधि (2) छोटी विधि या पाशच्युराइजेशन विधि।

1. लम्बी विधि

कम्पोस्ट बनाने वाले चबूतरे के पक्के फ़र्श पर गेहूँ के भूसे (10-15 सें.मी. लम्बा कटा हुआ) की 8-10 इंच मोटाई की पर्त फैला देते हैं। अब इस भूसे पर पानी छिड़का जाता है धीरे-धीरे भूसे को भिंगोया जाता है इस प्रकार दिन में 3-4 बार भूसे को भिंगोते हैं यह भूसा 2 दिन में पूरी तरह भींग जाता है भींगे भूसे में अन्य पदार्थ मिलाने से पहले उनको अच्छी तरह मिलाकर हल्के पानी में भिंगो कर एक गीले टाट से ढंक कर रात भर (16-18 घण्टे) रखते हैं। जिप्सम को छोड़कर दूसरे पदार्थ जैसे गेहूँ का चोकर, यूरिया और कैल्शियम नाइट्रेट आदि को एकसार रूप से अच्छी तरह भींगे हुए भूसे में मिला देते हैं।

इस अच्छी तरह से मिलाए गए भूसे को कम से कम 1 मीटर चौड़ा और 1 मीटर ऊँचा तथा 1 मीटर लम्बा (लम्बाई घट बढ़ सकती है) बना देते हैं। इसे दृढ़ तो बनाया जाता है पर बहुत अधिक सघन रूप से दबाते नहीं हैं। हर 3 या 4 दिन के अन्तराल पर, भूसे के इस ढेर को खोल कर कम्पोस्ट बनाने वाले चबूतरे पर कम से कम आधे घण्टे के लिए फैला दिया जाता है। यदि भूसा सूखा लगे तो इस पर पानी का छिड़काव किया जा सकता है और खोलने के 50-60 मिनट बाद पुनः इसका चट्टा बना दिया जाता है। यह प्रक्रिया हर तीसरे या चौथे दिन दोहराई जाती है।

तीसरी पलटाई के बाद 10 कि.ग्रा. जिन्स इसमें मिला देते हैं तथा शेष 10 कि.ग्रा. जिप्सम चौथी पलटाई के बाद मिलाया जाता हे। तीसरी पलटाई के दौरान जिप्सम की पूरी मात्रा भी एक साथ मिलायी जा सकती है। पाँचवीं पलटाई के दौरान मेलाथियॉन को 5 लि. पानी में घोलकर ऊपर से छिड़ककर अच्छी तरह मिला देते हैं। पुनः चट्टा बना दिया जाता है और इसे 3 दिन बाद खोलते हैं यदि अमोनिया की गंध अभी आती हो तो इसे और 2-3 दिनों के लिए चट्टा बना कर छोड़ देते हैं। इस प्रकार से लम्बी विधि द्वारा कम्पोस्ट तैयार करने में हर तीसरे दिन पलटाई करने पर 18-21 दिन लग जाते हैं तथा चौथे दिन पलटाई करने पर 26-28 दिन लगते हैं।

2. छोटी विधि या पाशचयुराजेशन विधि

इस विधि में कम्पोस्ट दो अवस्थाओं में तैयार किया जाता है। अवस्था 1. कम्पोस्ट बनाने वाले चबूतरे पर की जाती है और तत्पश्चातत्‌ अवस्था 2. एक बन्द कमरे में होती है जिसमें भाप की सहायता से कम्पोस्ट का पाशच्युराइजेशन एवं स्थिरीकरण (कंडीशन) किया जाता है।

अवस्था I  लग्बी विधि की भांति ही कटे हुए भूसे को चबूतरे पर 30-40 सें.मी. मोटी पर्त बनाकर फैला देते हैं और पानी का छिड़काव करते हैं। 3-4 दिनों तक इसे उलट-पलट कर भिंगोते रहते हैं। चार दिन बाद, जिप्सम को छोड़कर शेष पदार्थ एक सार रूप् से भूसे में अच्छी तरह मिला देते हैं। भूसे के इस चट्टे की प्रत्येक 48 घण्टे बाद पलटाई करते रहते हैं। तीसरी पलटाई के बाद जिप्सम मिलाया जाता है। सातवें दिन इस कम्पोस्ट को ट्रे में भरकर या सीधे पास्च्युराजेशन कक्ष में पहुँचा देते हैं।

अवस्था II  कम्पोस्ट को पास्च्युराइजेशन कक्ष में पहुँचाने के समय वहाँ का तापमान 45 से. रखा जाता है। अब पास्च्युराइजेशन कक्ष को बन्द कर तापरोधी बना दिया जाता है और इसे भाप द्वारा गर्म किया जाता है। भाप पहुँचने से 2-3 घंटे में घीरे-धीरे तापमान बढ़ना शुरु हो जाता है। जब कमरे के भीतर का तापमान 50-52  से. पहुँच जाए तो भाप की आपूर्ति बन्द कर देते हैं। अगले 2-3 दिनों तक यही तापमान (50-52 से.) बनाए रखा जाता है। तत्पश्चातत्‌ 2-3 घंटे के लिए तापमान 58-60 से. तक बढ़ा दिया जाता है।

इसके बाद किसी छोटी खिड़की को खोलकर ताजी हवा कक्ष में घुसने देते हैं जिससे तापमान कम होना शुरू हो जाता है। 12-14 घंटे के भीतर यह तापमान 40-45 से. पहुँच जाता है। अब खिड़की बन्द कर देते हैं। यह तापमान अगले 2-3 दिनों तक बनाए रखते हैं ऐसा करना कम्पोस्ट के स्थिरीकरण के लिए आवश्यक है। इस दौरान तापरागी सूक्ष्मजीव अमोनिया का उपयोग कर इसे कार्बनिक जैवमात्रा में परिवर्तित करते हैं। इसके फलस्वरूप अवस्था 2 के बाद नाइट्रोजन की मात्रा 2.2 से 2.2 प्रतिशत हो जाती है और यह कम्पोस्ट मशरूम की वृद्धि हेतु एक अच्छा संवर्धन माध्यम बन जाता है।

जब कम्पोस्ट परिवात-ताप पर पहुँच जाता है तो यह स्पान मिलाने के लिए तैयार हो जाता है ध्यान रहे बटन मशरूम का स्पान कम्पोस्ट में मिलाते वक्त वह पूरी तरह तैयार तथा अमोनिया गंध रहित हो एवं उसका तापमान 27-28 से. से ज्यादा न हो।

पास्च्युराइज्ड कम्पोस्ट से 6 सप्ताह में मिलने वाली अनुमानित उपज 16-20 कि.ग्रा. प्रति 100 कि.ग्रा. कम्पोस्ट होती है जबकि लम्बी विधि द्वारा बनाए गए कम्पोस्ट से 6-8 सप्ताह में मशरूम की उपज 8-10 कि.ग्रा. प्रति 100 कि.ग्रा. कम्पोस्ट मिलने की सम्भावना होती है।

100 कि.ग्रा. शुष्क भूसे से पानी एवं अन्य अवयव मिलाने के बाद 200 से 225 कि.ग्रा. कम्पोस्ट तैयार हो जाता है |

(1) इससे  भूसा  नरम हो  जाता है  और  कम्पोस्ट  का नम भार लगभग 550-600 कि.ग्रा./मी. है जिससे इसमें हवा का आदान-प्रदान अधिक होता है।

(2) इससे  कम्पोस्ट  के अवयव मशरूम के लिए पोषक तत्वों में परिवर्तित हो जाते हैं जो मशरूम की वृद्धि के लिए  आवश्यक है। मुक्त अमोनिया, लिग्नन से पॉलीसैके राइड्‌स को मुक्त करती है और इस प्रकार वे मशरूम को उपलब्ध हो जाते हैं।

(3) कम्पोस्टिंग की अवस्था 1 के दौरान जीवाणु (बेक्टीरिया)  कम्पोस्ट से उपलब्ध पोषक तत्वों का तुरन्त उपयोग कर लेते हैं जिसके कारण  अवस्था II के दौरान आवश्यकता से अधिक तापमान और प्रतिस्पर्धी की वृद्धि नहीं होती।

(4) इससे उपयुक्त जैव मात्रा निर्मित होती है और कई प्रकार के सूक्ष्मजीव-उत्पाद बनते हैं जिनमें से कुछ मशरूम की वृद्धि हेतु पोषक का कार्य करते हैं।

(5) इससे अन्य सूक्ष्मजीवों के बजाय बटन की वृद्धि होती है।

(6) इससे  कम्पोस्ट की संरचना परिवर्तित हो जाती है और उसकी जल रोकने की क्षमता बढ़ जाती है।

(7) यह प्रक्रिया  नाइट्रोजन  को स्थायी कार्बनिक अवस्था में परिवर्तित कर देती है ताकि मशरूम को उपलब्ध हो सके जब तक पी.एच. मान 7 से कम रहता है युक्त अमोनिया के बजाय अमोनियम आयन उपस्थित रहते हैं। युक्त अमोनिया बाइस्पोरस पर विषाक्त नहीं होता।

(1) कम्पोस्ट तैयार करने के लिए  एक  साल से अधिक पुराना भूसा प्रयोग नहीं करना चाहिए और प्रयोग में  लाया  जाने  वाला  भूसा वारिश में भींगा नहीं होना चाहिए। 8-10 सें.मी. लम्बाई का कटा भूसा एकदम सही रहता है ज्यादा  छोटे कटे भूसे से सघनता आती हे जिसके कारण वायु-स्थान कम हो जाते हैं और पानी ठहरने के कारण संदूषक (रोग आने) की संभावना बढ़ जाती है।

(2) सही ढंग से तैयार कम्पोस्ट गहरे भूरे रंग का होता है उसमें अमोनिया शेष नहीं रहती और कोई दुर्गन्ध नहीं आती।

(3) कम्पोस्ट का पी.एच. उदासीन या लगभग उदासीन रहना चाहिए अर्थात 7 और 7.5 के बीच होना चाहिए किसी भी परिस्थिति में यह 8.0 से अधिक नहीं रहना चाहिए अन्यथा ऐसा कवक जाल की वृद्धि के लिए हानिकारक होगा।

(4) कम्पोस्ट में जल की मात्रा 67-70 प्रतिशत की सीमा के भीतर रहनी चाहिए मशरूम की वृद्धि के लिए 68 प्रतिशत जल की मात्रा सर्वधा उपयुक्त है।

(5) इसमें नाइट्रोजन की मात्रा 2.2 से 2.5 प्रतिशत होनी चाहिए।

कम्पोस्ट को भरने से पहले उसमें जल की मात्रा की जाँच हथेली परीक्षण से कर सकते हैं। इसके लिए कम्पोस्ट को हथेली पर रखकर दबाने से यदि पानी की कुछ बूंदे बाहर निकलें तो समझना चाहिए कि नमी सही है। तैयार कम्पोस्ट का उपयोग अतिशीघर कर लेना चाहिए क्योंकि यदि इसे ढेर में लम्बे समय तक छो़ड़ दिया जाए तो कम्पोस्ट खराब होने लगता है।

पूर्णरूपेक तैयार कम्पोस्ट को ट्रे, रैकों या थैलियों में भर लेते हैं। ट्रे अथवा रैकों में कम्पोस्ट की 6 इंच मोटी पर्त भरते हैं। भरने के बाद कम्पोस्ट को हल्का सा दबाकर समतल कर देते हैं। चार से पाँच ट्रे एक दूसरे के ऊपर रख सकते हैं। सबसे निचली ट्रे जमीन से 20 सें.मी. ऊँचाई पर होनी चाहिए ऊपर-नीचे रखी दो ट्रे के बीच 20-25 सें.मी. का फासला अवश्य रखें जो विभिन्न क्रिया-कलापों और हवा के आने-जाने के लिए आवश्यक है। सबसे ऊपरी ट्रे में कम्पोस्ट और छत के बीच का फासला 100 सें.मी. अवश्य होना चाहिए।

यदि उत्पादन थैलियों में कर रहे हों तो 30 से 45 अथवा 45 से 60 सें.मी. परिणाम की पॉलीथीन की थैलियों का उपयोग कर सकते हैं। इनमें कम्पोस्ट की 10-12 इंच की पर्त भर कर हल्का सा दबा देते हैं। इन थैलियों में 4-5 सें.मी. के फासले पर 2 मि.मी. व्यास के छेद बना देते हैं। थैलियों के मुँह धागे से बाँध देते हैं। स्पान मिलाने से पहले कम्पोस्ट को 500 पी.पी.एम. बाविस्टीन, टॉप्सिन एम या सीकारिल से उपचारित कर लेना चाहिए।

स्पान आम भाषा में मशरूम का बीज है। वस्तुतः यह संवर्धन माध्यम पर विकसित मशरूम कवक का कवकजाल होता है। संवर्धन माध्यम प्रायः गेहूँ या अन्य किसी अनाज के दाने होते हैं जो इसकी वृद्धि के लिए पोषक प्रदान करते हैं।

एक अच्छे स्पान में सफेद रंग का कवकजाल अच्छी तरह फैला रहता है। एक महीने से अधिक पुराना स्पान प्रयोग नहीं करना चाहिए और अगर जरूरत हो तो इसका भण्डारण 5 डिग्री से. तापमान पर करना चाहिए। इसमें किसी प्रकार का संदूषक नहीं होना चाहिए अर्थात दूसरे सूक्ष्मजीवों से मुक्त होना चाहिए। स्पान किसी इच्छित विभेद ( स्ट्रेन) से तैयार किया जाना चाहिए जिसका भली-भांति परीक्षण किया जा चुका हो और क्षेत्र विशेष के लिए जिसकी संस्तुति की गई हो।

100x50x15 सें.मी. परिमाक की एक ट्रे के लिए लगभग 80-85 ग्राम स्पान पर्याप्त होता है। स्पान की मात्रा मुख्य रूप से वातावरण की परिस्थितियों पर निर्भर करती है। आदर्द्गा परिस्थितियों में स्पान की मात्रा परिस्थितियों पर निर्भर करती हे। आर्द्र परिस्थितियों में स्पान की मात्रा घटाई जा सकती है जबकि कम तापमान वाले ठंडे/पर्वतीय क्षेत्रों में स्पान की मात्रा बढ़ाई जानी चाहिए। आमतौर पर (भार/भार) के अनुपात से कम्पोस्ट के भार का 1 प्रतिशत या सूखे भूसे के भार के 2 प्रतिशत के हिसाब से कम्पोस्ट में स्पान मिलाया जाता है।

(1) सतह पर स्पान मिलाना :-

स्पान के दाने ट्रे अथवा रैक में भरे कम्पोस्ट की सम्पूर्ण सतह पर फैला दिए जाते हैं और उसके बाद उन्हें  2 सें.मी.  मोटाई की कम्पोस्ट की एक परत से ढक दिया जाता है।

(2) दो पर्तों में स्पान मिलाना :-

इस  विधि  का प्रयोग प्रतिकूल वातावरण, ठंडे इलाकों जहाँ तापमान कम रहता है में किया जाता है।  पहले ट्रे को कम्पोस्ट से आधा भरते हैं। इस पर स्पान फैलाते हैं और तत्पश्चात ट्रे को पूरा भरकर पुनः उसी प्रकार स्पान फैला दिया जाता है। अन्त में कम्पोस्ट की एक पतली परत इसके ऊपर फैला देते हैं इस प्रकार स्पान दो परतों के रूप में मिलाते हैं।

(3) एकसार रूप से स्पान मिलाना :-

प्रयोग की जाने वाली स्पान की सम्पूर्ण मात्रा, अच्छी तरह से पूरे कम्पोस्ट में एकसार रूप से मिला दी जाती है और तब यह मिश्रण ट्रे, रैकों अथवा थैलियों में भरा जाता है। पॉलीथीन की थैलियों में मशरूम उत्पादन  करते समय अक्सर इसी प्रकार से स्पान मिलाया जाता हैं।

(4) कुछ बिन्दुओं  पर  स्पान  मिलाना :-

पहले  ट्रे  या  रैक को कम्पोस्ट से भर लेते हैं। ऊँगली से पंक्तियों  में  4-5 इंच  के  फासले  पर 1-2 इंच गहरे गड्‌ढे में एक चाय वाला चम्मच स्पान से भरकर डाल दिया जाता है जिन्हें ऊपर से कम्पोस्ट द्वारा ढंक देते हैं।

स्पान मिलाने के पश्चात् इन ट्रे अथवा रैकों को पुराने अखबार के पन्नों से ढंक देते हैं और स्प्रेयर (फुहारे) की सहायता से इनके ऊपर घीरे-धीरे पानी छिड़कते हें। 4-5 ट्रे एक दूसरे के ऊपर रखी जा सकती है।

मशरूम घर का तापमान 22 से 26 डिग्री के बीच और आर्द्रता का स्तर 80-85 प्रतिशत बनाए रखा जाता है इसके लिए समय-समय पर मशरूम घर की दीवारों और फर्श पर पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए। कम्पोस्ट में स्पान फैलाते समय ताजा हवा की आवश्यकता नहीं होती इसलिए अंधेरा और आर्द्रता बनाए रखने के लिए कमरे को बंद रखें। हवा में 26 प्रतिशत स्तर तक कार्बन डाइऑक्साइड गैस, मशरूम के कवकजाल की वृद्धि में सहायक होती है।

अनुकूल परिस्थितओं में स्पान मिलाने के 14-15 दिनों के भीतर कम्पोस्ट की सतह सफेद रूई के समान कवकजाल की वृद्धि से ढंक जाती है। इस अवस्था को कवकजाल फैलने  की पूर्णावस्था कहा जाता है। यदि तापमान अनूकूलतम तापमान से कम है तो इस अवस्था के आने में 20-22 दिन लग सकते है जबकि तापमान अधिक होने पर कवकजाल की वृद्धि अवरुद्ध हो जाती है।

जब कम्पोस्ट में स्पान पूरी तरह से फैल जाता है तो रैक थैलों अथवा ट्रे पर केसिंग की जाती है। स्पान फैलने के बाद कम्पोस्ट को जिस चीज से ढंका जाता है उसे केसिंग मिट॒टी कहते हैं। अच्छी केसिंग मिट॒टी उदासीन या लगभग उदासीन होनी चाहिए अर्थात उसका पी.एच. माल लगभग 7 होना चाहिए और यह छिद्रयुक्त (पोली) होनी चाहिए ताकि हवा का आदान-प्रदान सुगमता (आसानी) से हो सके। इसकी पानी रोकने की क्षमता भी अधिक होनी चाहिए। केसिंग मिट॒टी निर्जर्मीकृत होनी चाहिए ताकि इसमें हानिकारण पीड़क और सूक्ष्मजीव न रहे। केसिंग इसलिए की जाती है कि मशरूम के फलनकाय बनना आरम्भ हो जायें और बनने के बाद सहारा मिले। विभिन्न प्रकार के केसिंग पदार्थ जो प्रयोग में लाए जा सकते हैं इस प्रकार से हैं :-

(1) तीन हिस्से गाय का सड़ा हुआ गोबर और एक हिस्सा  पाउडर बनाकर छनी हुई क्ले मिट॒टी (3:1) के अनुपात में) मिलाकर केसिंग मिट॒टी के रूप में प्रयोग कर सकते  है। गाय का गोबर एक वर्ष पुराना अवशय होना चाहिए।

(2) मशरूम उगाने के बाद शेष  बचा  कम्पोस्ट (दो वर्ष पुराना) गाय का सड़ा हुआ गोबर और क्ले मिट॒टी 2:1:1 के अनुपात में मिलाकर केसिंग के लिए प्रयोग कर सकते है।

(3) बजरी और गोबर की खाद 1:1 के अनुपात में मिलाकर प्रयोग कर सकते हैं।

(4) दोमट मिट॒टी और गोबर की खाद 1:1 अनुपात में मिलाकर प्रयोग कर सकते हैं।

(5) बगीचे की मिट॒टी और गोबर की खाद 1:1 अनुपात में मिलाकर प्रयोग कर सकते हैं।

केसिंग के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला पदार्थ कम्पोस्ट पर पहले भी-भांति विसंक्रमित कर लेना चाहिए ताकि मिट॒टी में उपस्थित कीट सूत्रकृमि या अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीव मर जाएँ। विसंक्रमक, भाप द्वारा या रसायन द्वारा किया जा सकता है।

भाप द्वारा निसंक्रमक :

एक कक्ष में केसिंग पदार्थ रखकर उसमें भाप प्रवाहित की जाती है और कम से कम चार घंटे तक 56-60 डिग्री से. अथवा 2 घंटे तक 80 डिग्री से. तापमान बनाए रखते हैं।

रासायनिक निसंक्रमक :

यह फॉर्मेलीन द्वारा करते हैं। आधा लिटर 40 प्रतिशत फॉर्मेलीन का घोल 10 लि. पानी में मिलाकर प्रयोग किया जाता है। यह घोल एक धन मीटर केसिंग मिट॒टी के लिए पर्याप्त होता है और उस पर फॉर्मेलीन का पानी में बना घोल छिड़का जाता है। उपचारित मिट॒टी का ढेर बनाकर उसे 48 घंटे के लिए एक अन्य पॉलीथीन की चादर द्वारा ढंक देते हैं। तत्पश्चात एक हपते तक इस केसिंग मिट॒टी को कुरेद कर तथा उलट-पुलट कर फॉर्मेलीन की दुर्गंध दूर करते हैं। फॉर्मेलीन की गंध से मुक्त होने पर यह केसिंग मिट्ट प्रयोग के लिए तैयार हो जाती है।

जब कम्पोस्ट में स्पान पूरी तरह फैल जाता है तो कम्पोस्ट को केसिंग मिट॒टी की 3-5 सें.मी. की पतली परत से ढंक दिया जाता है। केसिंग के बाद अगले 3 दिन तक मशरूम घर का तापमान 24-25 डिग्री से. बनाए रखते हैं। तीन दिन बाद तापमान 18 डिग्री से तक कम कर देते हैं ओर फलनकाय बनने के दौरान तापमान 14-18 डिग्री से. रखा जाता है। तीन दिन के भीतर मशरूम का कवकजाल, केसिंग मिट॒टी पर फैल जाता है।

जब भी आवश्यक हो, स्प्रेयर द्वारा पानी का छिड़काव करना चाहिए और पूरी फसल के दौरान आपेक्षिक आर्द्रता कम से कम 80-85 प्रतिशत बनाए रखते हैं।

 

फलनकाय बनते समय ताजा हवा आवश्यक होती है। समय-समय पर स्प्रेयर से पानी का छिड़काव कर  केसिंग  मिट॒टी को नम बनाए रखते हैं। इस दौरान तापमान 14-18 डिग्री से. और आपेक्षिक आद्रता 80-85 प्रतिशत बनाए रखनी चाहिए। अनुकूल परिस्थितियों में सामान्यतया केसिंग के 15-20 दिन बाद मशरूम के पिन दिखाई देने लगते हैं। 4-5 दिन के भीतर ये पिन सफैद बटन का रूप् ले लेते हैं। तुड़ाई योग्य मशरूम तैयार होने में कुल मिलाकर 8-10 दिन लग जाते हैं।

जब मशरूम के पीलियस (टोपी) का व्यास 3 – 4.5 सें.मी. तक हो जाय और स्टाइप (तने) की लम्बाई से लगभग दोगुना हो जाय तो इसकी तुड़ाई कर लेनी चाहिए। यदि तुड़ाई से पहले 2 प्रतिशत एस्कॉर्बिक अम्ल का छिड़काव कर दिया जाय तो मशरूम का रंग सफेद बना हुआ रहता है क्योंकि पॉलीफीनोल ऑक्सिडज नामक एन्जाइम की क्रिया रुक जाती है। जब तक टोपी दृढ़ अवस्था में हो और उसके नीचे स्थित झिल्ली फटी न हो तुड़ाई का सही समय माना जाता है। टोपी ढ़ीली पड़ने और झिल्ली के फटने के फलस्वरुप गिल्स खुलने के बाद मशरूम घटिया समझे जाते हैं और बाजार में भी उनका मूल्य नहीं मिल पाता।

मशरूम तोड़ने के लिए उसकी टोपी को ऊँगलियों से पकड़ते हैं और नीचे की ओर हल्का सा दबाव देते हुए इधर-उधर घुमाकर तोड़ लेते हैं। चाकू द्वारा तने के निचले मिट॒टी लगे हिस्से को काट कर अलग कर देते है ओर साफ सुथरा मशरूम इकट्ठा कर लेते हैं।

लम्बी विधि द्वारा कम्पोस्ट तैयार करने पर प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र से ओसतन 8-10 कि.ग्रा. ताजे मशरूम की उपज प्राप्त होती है। यह उपज प्रति 100 कि.ग्रा. कम्पोस्ट से 5-6 सप्ताह में प्राप्त होती है।

दूसरी ओर जब कम्पोस्ट छोटी विधि द्वारा तैयार किया जाता है और पास्च्यूराइज्ड कम्पोस्ट प्रयोग किया जाता है तो 6 सप्ताह में 100 कि.ग्रा. कम्पोस्ट से 16-20 कि.ग्रा. ताजा मशरूम प्राप्त किया जा सकता है। पॉलीथीन की थैलियों में मशरूम उगाने की विधि से 100 कि.ग्रा. कम्पोस्ट से 16-20 कि.ग्रा. ताजा मशरूम प्राप्त किया जा सकता है।

(1) परिवात ताप  पर मशरूम को 24 घंटे तक रखा जा सकता हे जबकि प्रशीतित परिस्थितियों में 3-4 दिनों तक इस खुम्ब का भण्डारण किया जा सकता है।

(2) तुड़ाई के बाद मशरूम को बहते पानी में धोकर तुरन्त 5 डिग्री से. पर ठन्डा कर देना चाहिए।

(3) पैकिंग 200 ग्रा. या 500 ग्रा. के  पॉलीथीन की थैलियों में की जाती है लेकिन भण्डारण के दौरान इन थैलियों में एक से.मी.व्यास के दो-दो दोनों तरफ कर देते हैं।

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